Lipstick Under My Burkha

Film Review : लिपस्टिक अंडर माई बुरखा – मेरी नज़र से !

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लिपस्टिक अंडर माई बुरखा

Lipstick Under My Burkha

… बुरका … नहीं, नहीं, बुरखा है!

हाँ तो भई, ये समीक्षा है, मुझ हसीन भालू और मेरे प्यारे शहद के लोटे द्वारा इस पिक्चर की…

औरत ही महान है” की खुजली अबकी बार खुजा रही है अलंकृता श्रीवास्तव को, जिन्होंने ये कहानी
लिखी और निर्देशित करी है.

और उनकी इस खुजली को टेलकम पाउडर से दूर रक्खा है प्रकाश झा जी ने, क्योकि उनकी “सामाजिक सत्य दिखाओ” वाली हिचकियाँ अभी भी चालू है.

भाई लोगो, डायरेक्टर और प्रोडूसर दोनों से कह रहा हूँ – यार वाकई में अगर भारत देश को आगे ले जाना है तो भाषण मार्का फिल्मे न बनाओ
और अगर वाकई में डायरेक्टर लेखक आदि आदि हो – तो “स्टार वार्स”, “दी ममी”, या “जुमान्जी” जैसा कुछ बनाओ तो जाने, और स्त्री एवं पुरुष क्रांति साथ में मुफ्त, अरे मै खुद लाकर दूंगा!

क्या यार!

*लम्बी जम्हाई*

हाँ, तो कहानी से पहले निपट लेते है फिर संगीत, पटकथा, छायांकन वगैरह से भी दो दो हाथ करेंगे!

कहानी ये है की चार लोग है, वो वाले नहीं जो आपका रिसल्ट देखेंगे तो क्या कहेंगे! – बल्कि औरत वाले चार लोग, जो आसमान छूने की फिराक में लगे हुए है इसलिए वो आपको क्या सामने से आते ट्रक को भी नहीं देखेंगे…

तो खैर, ये चार औरते, यानि उषा (रत्ना पाठक शाह), रिहाना (प्लाबिता बोरठाकुर), लीला (आहना कुमरा) और हर औरतीय फिल्म में जिनका होना default रूप से जरूरी है यानि कोंकणा सेन शर्मा as शिरीन

ये चारो सपना कुचलाइसिस रोग से ग्रस्त है और सिर्फ यही है पूरी दुनिया में और कोई भी नहीं!

ये याद रखना जरूरी है.

खैर इन सबकी अपनी कहानियां है जो आगे जुड़ते जुड़ते इस पूरी फिल्म का निर्माण करती हैं.

रत्ना पाठक शाह यानि उषा यानि बुआ जी एक ५० के पेटे में सीदा सादा और बेहद नीरस जीवन जीने वाली पूरे मोहल्ले की बुआ जी है, जिन्हे इस बात की मांग है की उनकी लाइफ में कुछ रोमांटिक और जोशीला हो. इसलिए वे दूरभाष कामुक क्रीड़ा अर्थात फ़ोन लस्ट एक्टिविटियाँ करने लगती है, रात में अश्लील कहानियो का आस्वादन करते हुए, हिंदी वाली कहानियां, जिसमे कहानी नहीं होती!

अअअ… वो मेरे एक दोस्त ने बताया था!

तो खैर, प्लोबिता अर्थात रिहाना एक मुस्लिम परिवार की स्किज़ोफ़्रेनिया से ग्रसित किशोरी हैं, जो क्लेप्टोमेनिएक भी लगती है मुझे, अर्थात चोरी करने की खुजली से परेशान है, या शायद नहीं है क्योकि वो ढेर सारी चीज़े चुराती है बड़ी, एसी युक्त, चमकती कांच की दीवारों वाली दुकानों से और किसी को पता नहीं चलता!

और अगर उन्हें नहीं पता तो ऐसा नहीं हुआ!

उसे माइली साइरस बहोत पसंद है – बस यही सारी भावनाये ख़तम हो जाती है मेरी, पर अपना काम तो करना ही होगा! इसलिए आगे…

और वो अपने घर परिवार को छोड़ कर, रज्जाक के साथ अज्जाद होना चाहती है, या शायद अकेले ही सही, आज कल तो जो न हो वो कम है?

आहना यानि लीला एक ब्यूटिशियन है और उसके पास एक रज्जाक है जिसके साथ वो भाग कर अपनी बूढ़ी, अंधी और विधवा माँ से अज्जाद होना चाहती है.

माँ शायद अंधी नहीं है उसकी, पर किसे पड़ी है? शर्तिया उसकी बेटी को तो नहीं!

और चौथी गुलामियत झेलने वाली अबला नारी है, कोंकणा यानि सुपर वुमन वौइस् विद एक्स्ट्रा लाउड नोइस एज्ज हर साइड किक!

यानि शिरीन, जिनके पति अभी ईरान या वही कही से भगाये गए मेरा मतलब…लौट कर आये है और पूरे सेक्सी बीस्ट है.

वो नहीं चाहते की शिरीन कुछ भी करे या देखे सिवाय खाना बनाने के और बच्चे सँभालने के…क्योकि मर्द साले बड़े टॉप के दुष्ट होते है.

बहुत दुष्ट.

बहुउउउउउउउत दुष्ट!

इतने दुष्ट की जितनी दुष्टता नापी जाये टेप कम ही पड़ेगा!

इतने दुष्ट की अमेरिका भी एकबारगी बोल दे की यार भला इसकी दुष्टता मेरी दुष्टता से लाल कैसे?

इतने दुष्ट की…की…मतलब…सबसे दुष्ट!

तो खैर.

बस इसी चिलबिल्लेपन से कहानी शुरू होकर आगे बढ़ती है और एकदम ही परफेक्शन के साथ ख़तम होती है!

मतलब कही कोई सिरा छूटता नहीं है, बाई गाड़.

ये एक कटाक्ष था!

तो अब, समीक्षा…

यार इसमें जो कुछ भी दिखाया गया है वो अमेरिका जी ने आज से सन उन्नीस सौ बहुत पहले ही दिखा दिया था, यानि फ्रीडम, हक़, सामाजिक बंदिशे, लड़कपन का प्रतिवार, सअअअअअक्स और जोशीली बंदिशे तोड़ती औरते.

इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो अनहोनी, अनोखा, पहले न सुना गया, न देखा गया और नया हो.
लेकिन…

फिल्म मनोरंजक है, इसमें सामाजिक स्त्री प्रतिकारक स्थितियों और मानसिकताओं पे चुहल लेते हुए हर बात कही गयी है.

ये बोर नहीं करेगी.

इसमें कई दृश्य अवास्तविक है, और अंत अजीब, पर ये बोर नहीं होने देती और ये गुण किसी भी कहानी को अच्छी लाइन में खड़ा कर ही देता है, भले ही बात नयी न हो.

म्यूजिक अच्छा है, बीट वाला है (अरे, थिरकने वाली बीट), वाला है यार!

स्क्रीनप्ले, छायांकन …वगैरह …  वगैरह को जान कर आप क्या करेंगे … जब इंडस्ट्री के लोग नहीं जान पाए तो आप क्या करेंगे? वैसे छायांकन अच्छा है और पटकथा “ठीक है” और “अच्छा है” के बीच में आती है,”अच्छा है” की तरफ ज्यादा होती हुई.

और अंत में, इसमें जो भी बावला काटा गया था, वो फ़िज़ूल का है, क्योकि ज़िन्दगी इतनी सीधी नहीं होती की ये गन्दा है और ये अच्छा है का तमगा हमेशा सताता रहे.

जो चीज़ या इंसान आपकी जिंदगी में कभी अच्छा था वो शायद कल अच्छा न रहे, यही नियम हर बात पे लागू होता है, इसलिए कोई भी दृष्टिकोण या कानून हमेशा के लिए एक सा नहीं रह सकता.

अगर ये बात कही जाती है की फलानी फिल्म अश्लील है, सिर्फ इसलिए क्योकि उसमे कुछ दृश्य या मै तो कहता हूँ पूरी फिल्म ही “सेंसेटिव” है. तो इसका मतलब है की ये कहने वाला या तो छोटे दायरे वाली सोच का मालिक/मालकिन है या इंसान के रूप में फरिश्ता है जो पूरी मानवता को बचा के ही दम लेगा/लेगी.

इस दुनिया में तरह तरह के विद्वान् और विदुषी भरे पड़े है, कृपया दूसरो को इतना ज्यादा भी न माने की आप उनका ही एक रूप बन जाये.

चाहे इश्वर हो या दानव,

गुरु हो या मानव,

अपनी बुद्धि जानव,

और नहाके गाना गानव …!

मै इस फिल्म को देता हूँ साढ़े तीन सितारे क्योकि बहुत सूखा पड़ा हुआ है भई!!!

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