https://youtu.be/98_gEEBu2r4
मधुर भंडारकर द्वारा निर्देशित, और उन्ही के द्वारा ऊँगली करित कहानी और पटकथा भी जिसमे अनिल पांडे ने उनका साथ निभाया…
संजय छेल के संवाद …
और “अनु मलिक हूँ मैं -अनु मलिक, समझा!!” द्वारा संगीत “बद्ध”!
कुछ भी खटर पटर शुरू करने से पहले कुछ छेड़ना चाहूंगा –
एक तो मेरे ये समझ में नहीं आता की कुछ निर्देशक हमेशा एक ही टोन की फिल्मे काहे बनाते जबकि उनसे वो सही से बनती भी नहीं है – वो प्रयास जरूर करते है, (मै ये नहीं कह रहा की नहीं करते है) पर अब बीस हजार साल industry में बिताने के बाद भी अगला अगर वही कहानी की टोन, वही कैमरा की सेटिंग, वही भारी बेस गिटार की बैकग्राउंड थपक, वही वीर रस के सपाट सीन, वही जगमगाते क्रन्तिकारी किरदार …
…ऐ ऐ ऐ … वो वो वो … ऊंघ!
सबके पास और कुछ रह नहीं गया है क्या?
मधुर भंडारकर को जिंदगी की कड़वी, मनहूस असलियत और आइना और दूसरा पहलु और न जाने क्या क्या सामने लाने की खुजली हो रख्खी है! वैसे ही संजय लीला भंसाली को वियोग श्रृंगार रस में ही तफरी सूझती है (हाय दुःख, हाय बिछुड़ना, हाय ईश्वरीय अलगाव)…
आशुतोष गोवारिकर को आधे दिन लम्बी फिल्मे बनाने से ही खाना हजम होता है…
और साजिद खान को आखिर हुआ क्या है, ये वही आदमी था जिसने “कहने में क्या हर्ज है” लिखा और होस्ट करा था!
भारतीय हिंदी मनोरंजन प्रोग्रामिंग के कुछेक बढ़िया शोज में से एक!!
खैर, तो हम कहाँ थे?
हाँ, इंदु सरकार के ट्रेलर की समीक्षा –
तो ये फिल्म मधुर भंडारकर के द्वारा बनायीं गयी है, जो सन उन्नीस सौ पुरानी के दौरान भारत देश में लगे emergency अर्थात आपातकाल के बारे में एक कहानी दिखाती है.
और मधुर, मेरे भाई, मेरे यार, मेरी जान, बाकि सब तो ठीक है पर “फ्रॉम वन स्टोरीटेलर टू ऍनअदर” – असल ज़िन्दगी में से किसी भोकाली जगह, इंसान या घटना का इस्तेमाल अपनी कहानी को एक असलियत देने में ही किया जा सकता है, उसे मनोरंजक बनाने में नहीं. सीरियसली मैन!
तो कहानी इस तरह शुरू होती है की इमरजेंसी की शुरुआत हो रही है. मदर इंडिया का किरदार निभाने वाली इंदिरा गाँधी एक तरफ इमरजेंसी लगा देती है और दूसरी तरफ एक औरत है जो बेहद ही भोली भली है, अभी अभी शहर आयी है और मंच पर लोगो के सामने आकर कहती है “मै बस एक अच्छी पत्नी बनना चाहती हूँ!”
ये काफी अनोखे किस्म का चरित्र प्रस्तुतीकरण है, पर मुझे क्या, खैर आगे….
और फिर कुछ एम्बेसडर कारो के गाँवों मे चलते हुए सीन है और नेपथ्य से कोई बोलता है की “गाँधी परिवार के अब वो मायने नहीं रह गए है जो पहले थे!” – साहित्यिक रूप से इसका ये मतलब होता है की जिन लोगो ने इस फिल्म को बनाया है वो अभी भी साहित्य विज्ञान की अपनी पहली क्लास के प्रोफेसर से, “भारतीय दर्शक को जटिल कहानी की भूमिका कैसे समझाए”, मे “A” ग्रेड पाने की कोशिश कर रहे है!
फिर दंगे फसाद के कुछ दृश्य है जिसमे किसी मोटे आदमी को पुलिस की गोली लगती है और वो एकदम ख़ामोशी के साथ कूच कर जाता है, और नायिका यानि वो “अच्छी पत्नी बनूँगी” वाली औरत उस मोटे आदमी के पीछे होने की वजह से बच जाती है और चूँकि उसे गोली नहीं पड़ी है इसलिए वो बहुत कस के चिल्लाती है.
और फिर से, एम्बेसडर कारो के और पुलिस जीपों के इधर उधर घिघियाने के कुछ दृश्य है और फिर नेपथ्य से वॉइस ओवर होता है – नायिका कहती है की पुलिस लोगो को गोली क्यों मारे फिर रही है? कल एक मोटा आदमी मर गया बिना चूँ चा के, कल को बाजार को जाते वक़्त मुझे कुछ हो गया तो?
इस पर उसका पति, जो की एक खल चरित्र है, आसमान को हसरत से देखता है और कहता है “मुझे अपने देश के संविधान पर पूरा भरोसा है, इसलिए मै इस बारे मे कुछ नहीं करूँगा!”
और फिर राम, कृष्ण, सांई, दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, शिव और हनुमान की तस्वीरो को प्रेममयी नज़रो से प्रणाम करते हुए सर झुकता है और दूसरा सीन शुरू हो जाता है…
और चूँकि आज तक कोई भी पत्नी अपने पति की हसरत भरी मंद मंद ख़ुशी को सहन कर पाने की शक्ति नहीं पायी है इसलिए अब ये अकेली पत्नी, औरत और देश की बेटी इस इमरजेंसी को ख़त्म करेगी और दूसरी देश की बेटी जिसने की ये ख़ुशी उसके पति को देने की हिम्मत करी, उसे रोकेगी!
देश की बेटी बनाम देश की बेटी इस फिल्म की अपील है – शायद यही इस फिल्म की टोन है.
हाँ तो बस यही है – एक तरफ दुष्ट, भ्रष्ट, सत्ता के नशे मे चूर नेतागण और दूसरी तरफ एक अकेली अबला नारी और उसके द्वारा की गयी जद्दोजहद.
इंदु सरकार – एक अनकही कहानी – 28 जुलाई को आपके नज़दीकी सिनेमाघरों मे!
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तो अब बात कर लें की इस फिल्म का प्लस पॉइंट क्या है?
पहला तो ये की ये नायिका प्रधान फिल्म है और कीर्ति कुलहरि का अभिनय ठीक है (पर ये लोग इतना मेकअप क्यों करे रहते है? साफ़ साफ़ दिखता है!)
दूसरा ये की इसकी कहानी अपेक्षाकृत अलग है (वैसे कुछ ख़ास नहीं है).
नील नितिन मुकेश का संजय गाँधी वाला लुक बहुत बढ़िया है और हमारे देश के किसी आर्टिस्ट ने अगर ये मेकअप करा है तो ये मुझे एक बहुत ही बढ़िया बात लगती है!
बस इतना ही!
और अंत मे, मुझे ट्रेलर सपाट लगा, कोई ख़ास उत्साह नहीं झलक रहा है इसमें और फिल्म चुकी मेहनत से बनायीं गयी है और ठीक ही है इसलिए अगर किसी दिन आप बाजार मे भटक रहे हो, आप के पास फालतू के पैसे हो और मन कर रहा हो कोई पिक्चर देखने का तो तीसरा चौथा ऑप्शन ये फिल्म हो सकती है!
धन्यवाद्!
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